Haryana: सूरजकुंड मेला में ये कला बना आकर्षण का केंद्र, लोग हो रहे चकित

Surajkund Mela: Haryana के फरीदाबाद जिले में आयोजित सूरजकुंड मेला हर साल देश-विदेश से पर्यटकों और कला प्रेमियों को आकर्षित करता है। इस मेले में भारतीय संस्कृति, हस्तशिल्प, कला और पारंपरिक धरोहर का शानदार प्रदर्शन होता है।
इस बार के सूरजकुंड मेला में एक खास बात देखने को मिल रही है, और वह है ‘बहरुपिया’ कला का पुनर्निवेश। यह कला जो कभी राजाओं और महाराजाओं के दरबारों में मनोरंजन का प्रमुख हिस्सा हुआ करती थी, अब मेला में देखने को मिल रही है। राजस्थान के निवासी मनोज और उनके छह भाई इस कला को लेकर आए हैं और इस अद्भुत कला को लोगों के बीच प्रस्तुत कर रहे हैं।
बहरुपिया कला: एक अद्भुत और प्राचीन कला रूप
बहरुपिया कला भारतीय संस्कृति का एक अनमोल हिस्सा है, जो समय के साथ लगभग विलीन हो गया था। यह कला उस समय की है जब राजा-महाराजा अपने दरबारों में मनोरंजन के रूप में बहरुपिया कलाकारों को आमंत्रित करते थे। बहरुपिया कलाकार अपने रूप-रंग और शारीरिक हाव-भाव से विभिन्न रूपों को धारण कर लोगों को हंसाते और चौकाते थे। इस कला में कलाकार अलग-अलग रूप धारण करता है, जैसे कि भगवान, देवी-देवता, जानवर, या अन्य प्रसिद्ध व्यक्ति।
बहरुपिया का शब्दार्थ भी ‘बहरूप’ से लिया गया है, जिसका मतलब है ‘बहुत रूपों वाला’। बहरुपिया कलाकार अपनी कला के माध्यम से लोगों को न केवल मनोरंजन प्रदान करते थे, बल्कि यह कला समाज में विशेष पहचान बनाने का एक महत्वपूर्ण तरीका भी थी। यह कला एक प्रकार से समाज के विभिन्न वर्गों के बीच मनोरंजन का पुल था।
मनोज और उनका परिवार: बहरुपिया कला के संरक्षक
राजस्थान के निवासी मनोज और उनके छह भाई बहरुपिया कला को अपनी विरासत के रूप में निभा रहे हैं। उनके परिवार के लोग इस कला को पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाते और प्रदर्शन करते आ रहे हैं। मनोज ने बताया कि उनके दादा, शिवराज, बहरुपिया कला के एक महान कलाकार थे और उन्होंने अपने जीवन में कई बड़े दरबारों में प्रदर्शन किया। उनके दादा का नाम इस कला में बहुत सम्मान से लिया जाता था और उनका परिवार बहरुपिया कला के प्रसार में सक्रिय था।
मनोज ने कहा, “हमारे परिवार ने बहरुपिया कला को कभी बंद नहीं होने दिया। यह कला हमारे लिए केवल एक पेशा नहीं, बल्कि हमारे संस्कारों का हिस्सा है।” उनका परिवार न केवल भारत के विभिन्न हिस्सों में, बल्कि विदेशों में भी इस कला का प्रदर्शन करता रहा है। मनोज और उनके भाई अब इस कला को एक नई दिशा देने का प्रयास कर रहे हैं, ताकि इसे अगली पीढ़ी तक पहुंचाया जा सके।
सूरजकुंड मेला में बहरुपिया कला का प्रदर्शन
इस वर्ष सूरजकुंड मेला में बहरुपिया कला का प्रदर्शन देखने के लिए देश-विदेश से आए पर्यटक उत्साहित हैं। मनोज और उनके भाई मेला में अपने प्रदर्शन से दर्शकों को मोहित कर रहे हैं। वे अपने प्रदर्शन में विभिन्न रूपों को धारण करते हैं, जैसे कि भगवान शिव, राम, कृष्ण, और अन्य देवी-देवता। इसके अलावा, वे जानवरों के रूप में भी प्रदर्शन करते हैं, जैसे कि शेर, हाथी, और अन्य जानवरों के रूप।
मनोज और उनके परिवार के कलाकार अपने कपड़ों और मेकअप के माध्यम से इन रूपों को जीवंत बनाते हैं। उनकी कला में न केवल शारीरिक हाव-भाव का महत्त्व होता है, बल्कि उनकी संवाद शैली और मुस्कान भी दर्शकों को आकर्षित करती है। वे अपनी कला के माध्यम से दर्शकों को यह महसूस कराते हैं कि हर रूप में एक नई कहानी छिपी होती है।
बहरुपिया कला का समृद्ध इतिहास
बहरुपिया कला का इतिहास बहुत पुराना है और इसका संबंध भारत की समृद्ध सांस्कृतिक धरोहर से है। यह कला न केवल मनोरंजन का एक साधन थी, बल्कि इसे एक प्रकार से धार्मिक और सामाजिक संदेशों के प्रसार के रूप में भी देखा जाता था। पुराने समय में राजा-महाराजाओं के दरबारों में बहरुपिया कलाकारों को विशेष सम्मान दिया जाता था। वे कई बार अपने अद्भुत रूपों के माध्यम से राजाओं को खुश करने के लिए उनके दरबार में प्रस्तुत होते थे।
इतिहासकारों के अनुसार, बहरुपिया कला का अस्तित्व भारतीय समाज में बहुत पहले से है और यह खासकर शाही दरबारों और त्योहारों के समय अधिक प्रचलित थी। इसके अलावा, बहरुपिया कला का उपयोग धार्मिक अनुष्ठानों में भी किया जाता था, जहां कलाकार देवताओं के रूप में प्रस्तुत होते थे और पूजा-अर्चना का हिस्सा बनते थे।
बहरुपिया कला का आधुनिक संदर्भ
आज के समय में बहरुपिया कला को एक पुरानी कला के रूप में देखा जा सकता है, जो धीरे-धीरे विलीन हो रही थी। लेकिन मनोज और उनके परिवार के प्रयासों से यह कला फिर से जीवित हो रही है। सूरजकुंड मेला जैसे आयोजनों में बहरुपिया कलाकारों का प्रदर्शन न केवल भारतीय कला के संरक्षण के रूप में देखा जा रहा है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और धरोहर को नये तरीके से प्रस्तुत करने का एक तरीका भी बन गया है।
मनोज का कहना है, “हमारा प्रयास है कि हम इस कला को केवल प्रदर्शन तक सीमित न रखें, बल्कि इसे नए तरीके से लोगों तक पहुंचाएं।” उनका मानना है कि इस कला को पुनर्जीवित करने से न केवल भारतीय संस्कृति को बल मिलेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ी को भी अपने पारंपरिक कला रूपों के बारे में समझने का मौका मिलेगा।
बहरुपिया कला भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे समय के साथ सहेजना और पुनर्जीवित करना बेहद जरूरी है। मनोज और उनके परिवार के प्रयासों से इस कला को एक नई दिशा मिली है और वे इसे आने वाली पीढ़ी तक पहुंचाने का कार्य कर रहे हैं।
सूरजकुंड मेला जैसे आयोजनों में इस कला का प्रदर्शन न केवल भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को प्रकट करता है, बल्कि यह हमें अपने इतिहास और परंपराओं से जोड़ने का एक माध्यम भी है। बहरुपिया कला जैसे प्राचीन कला रूपों का संरक्षण भारतीय संस्कृति के अमूल्य खजाने को सहेजने का कार्य करता है।